- बाबा मायाराम
हम मध्यप्रदेश के होशंगाबाद (नर्मदापुरम) जिले को देखें तो भौगोलिक रूप से दो हिस्सों में बांट सकते हैं। एक है सतपुड़ा पहाड़ की जंगल पट्टी, और दूसरा है नर्मदा कछार। सतपुड़ा की पट्टी में मुख्य रूप से आदिवासी रहते हैं जबकि नर्मदा कछार को बहुत उपजाऊ माना जाता है। नर्मदा किनारे की मिट्टी बहुत ही उर्वर है।गांवों के आसपास अमराई (आम के बगीचे) हुआ करती थी, कुछ जगह तो अब भी है।
इन दिनों सतपुड़ा के जंगल और पहाड़ में पलाश के फूलों की बहार है। आम के बौर आए हैं, उनकी ताज़ी खुशबू हवा में फैली है। पेड़ों में नए पत्तों की कोपलें आ गई हैं। नीम भी हरी-भरी हो गई है। पक्षियों की चहचहाहट है। मौसम खुशगवार है। आज के कॉलम में जंगल और उसके आसपास के जनजीवन की चर्चा करना चाहूंगा, जिससे इलाके को समग्रता से समझा जा सके। इस इलाके के लोग, जंगल, पहाड़ और नदियां ही यहां की पहचान है।
छुटपन ही मेरा गांव में बीता है। हमारा गांव सतपुड़ा की तलहटी में बसा है। अगर हम मध्यप्रदेश के होशंगाबाद (नर्मदापुरम) जिले को देखें तो भौगोलिक रूप से दो हिस्सों में बांट सकते हैं। एक है सतपुड़ा पहाड़ की जंगल पट्टी, और दूसरा है नर्मदा कछार। सतपुड़ा की पट्टी में मुख्य रूप से आदिवासी रहते हैं जबकि नर्मदा कछार को बहुत उपजाऊ माना जाता है। नर्मदा किनारे की मिट्टी बहुत ही उर्वर है।
गांवों के आसपास अमराई (आम के बगीचे) हुआ करती थी, कुछ जगह तो अब भी है। मुझे कुछ समय तक इटारसी के पास केसला में अमराई में रहने का मौका मिला था। आम की मंजरी (आम के फूल, जो छोटे-छोटे समूहों में होते हैं) की तरह तुलसी की मंजरी भी होती है। इसे पुष्प गुच्छ भी कह सकते हैं। इस पर तरह-तरह के पक्षी, तितलियां व भंवरे मंडराते रहते हैं। हवा में इसकी खुशबू फैलती है। जब मैं गर्मी के दिनों में खुले आसमान के नीचे सोता था, तब इसकी मंद-मंद बयार बहुत भाती थी।
होली का त्यौहार आते ही यह जंगल पलाश ( स्थानीय भाषा में इसे खकरा कहते हैं) के लाल फूलों से सज जाता है। जंगलों में इसकी छटा देखते ही बनती है। इस पर भी चिड़िया फुदक-फुदक कर रस चूसती दिखती हैं। हालांकि ये फूल कुछ ही दिन रहते हैं, और मुरझा कर गिर जाते हैं। किसी कवि ने कहा है कि- दिन दस फूला, फूलि के खंखड़ भवा पलास।
लेकिन साल भर इस मौसम का इंतजार रहता है। होली में इसके फूलों का रंग बनाया जाता था। बांस की पिचकारी में इसे भरकर एक दूसरे पर रंग डाला जाता था। जब गांव में हुरयारे घूमते थे, फागें गाते थे, तब उन पर यही रंग डाला जाता था। पूरा माहौल उत्साह व जोश से भरा होता था। इसके पत्तों से दोना-पत्तल बनाए जाते हैं और इसके तने से रस्सी भी बनाई जाती थी। यानी यह बहुपयोगी वृक्ष है।
एक और वृक्ष हमें आकर्षित करता है, वह है सेमल का। अंग्रेजी में इसे सिल्क कॉटन कहते हैं और बुंदेली में इसे सेमरा कहते हैं। इसके चटख लाल फूल अलग से ही अपनी ओर खींचते हैं। इसका एक इस्तेमाल पुराने समय में आग पैदा करने में भी होता था। (चकमक लोहा) को पत्थर से रगड़ने से जो चिंगारी निकलती तो उसे रूई के माध्यम से चूल्हा जलाया जाता था। उस समय माचिस का चलन नहीं होता था।
इसके अलावा, जंगल में आंजन की पत्तियां गर्मी में भी हरी होती हैं। इसकी पत्तियों से रस टपकता है। गर्मी में यह ठंडक देती है। इसके अलावा जंगल में महुआ, आम, आंजन, साज, बील, धावड़ा, हर्र, बहेड़ा, आंवला, सरई और कई पेड़-पौधे व कई वनस्पतियां हैं। पतझड़ के मौसम में ये जंगल उदास और पत्तेहीन हो जाते हैं। सतपुड़ा पहाड़ से कई नदियां निकली हैं, जिसकी वजह भी जंगल है, जिन्हें वनपुत्री भी कहा जाता है।
इन दिनों खेतों में भी काफी चहल-पहल होती है। गेहूं की कटाई चल रही है। कहीं हाथ से कटाई हो रही है, तो कहीं हारवेस्टर से गेहूं कट रहा है। चना की कटाई हो चुकी है। एक दिन मेरे किसान मित्र ने मुझे होउरा खिलाया। होउरा यानी हरे चने को भूनना, इसका स्वाद ही अनूठा है। पहले चना कटाई के समय मित्रो व पड़ोसियों को होउरा खाने के लिए खेत पर आमंत्रित भी किया जाता था।
किसान और मजदूरों का भाईचारा भी इसी समय देखने को मिलता है। किसान को गेहूं कटाई के लिए मजदूरों की मदद चाहिए होती है, मजदूरों को काम। यह वह समय होता है, जब दोनों एक दूसरे के काम आते हैं। खेतों का काम तो होता ही है, साथ में दुख-सुख की बातें भी हो जाती हैं।
हालांकि इसमें हारवेस्टर के कारण कमी आई है, फिर भी खेतों में फसलों की सिंचाई के लिए मजदूरों की जरूरत पड़ती है। इसलिए यह रिश्ता बना हुआ है। भूमिहीन मजदूर भी इन खेतों में कटाई के बाद शेष बची बालियां बीनते हैं, किसानों की तरफ से इन्हें छूट दी जाती है। इन गेहूं की बालियां बीनने वालों को बिनैय्या कहते हैं, जो इन दिनों खेतों में खूब दिखते हैं।
अगर हम मानसून की बात करें तो उसके आते ही सतपुड़ा के पहाड़ों और जंगलों की छटा देखती ही बनती है। जो जंगल गर्मी में सूखे, उदास और बेजान से दिखते हैं, वे मानसून की बारिश आते ही हरे-भरे और सजीव हो उठते हैं। मन मोह लेते हैं, बरबस अपनी ओर खींचते हैं।
बारिश से जमीन, चट्टानें और पेड़ों की नंगी डालियों में नई जान आ जाती है। चारों तरफ हरियाली फूट पड़ती है। पेड़ों की शाखाएं सरसराती हवा में डोलने लगती हैं। चिड़ियां फुदकने लगती हैं। उनके गीत और जंगल की हवा मिल जाती है।
जो नदी नाले गर्मी में सूख जाते हैं, या कहें अदृश्य हो जाते हैं, बारिश में बहने लगे हैं। पहाड़ियों से निकल कर झरने कल-कल बहने लगते हैं। इनको देखकर ऐसा लगता है जैसे गुमा हुआ व्यक्ति अचानक से मिल जाता है।
मौसम में नई बहार आ जाती है। जगह-जगह से छोटे-बड़े पौधे निकल आते हैं। पेड़ों के बीच से, चट्टानों की दरारों से और जहां आप सोच भी नहीं सकते वहां से पौधे झांकने लगते हैं।
बारिश के दौरान पेड़ों से बूंदें टपकना, पेड़ों की डालियों में लड़ियों सी सज जाती हैं। घने मिश्रित के वनों के ऊपर छतरी से छाए बादल मंडराते हैं, धुएं सा आभास होता है, पानी की फुहार गिरती रहती है, रिमझिम-रिमझिम, धीरे-धीरे।
उन दिनों सागौन के पेड़ सफेद फूलों से लदे रहते हैं। इसके जुड़वा पत्ते हवा में हिलते हैं। हाथ के स्पर्श से खरखराते हैं। सागौन इमारती लकड़ी है। इसके खुरदरे पत्तों से किसान खेतों में ढबुआ (मंडप) बनाते थे, जिससे वे रखवाली करने के दौरान रहते हैं। जंगल वाले इलाकों में अब भी बनाते हैं। इसके पत्तों से बने ढबुए बहुत ठंडे होते हैं।
नर्मदा जो विन्ध्यांचल और सतपुड़ा के बीच मैकल पर्वत से निकलती है, इसलिये इसे मैकलसुता कहते हैं। इसकी बंजर, शेर, दूधी, शक्कर, पलकमती, तवा, देनवा जैसी सहायक नदियां भी सतपुड़ा पहाड़ से निकलती हैं। इनमें में कुछ सदानीरा थी, बारहमासी नदियां थी, जो अब बारिश में ही बहती हैं। जंगल का मोहक रूप मानसून में होता है, इसी जंगल और पहाड़ से नदियों का अस्तित्व जुड़ा है।
जबलपुर के पास भेड़ाघाट, जहां मैं जाता रहा हू, नर्मदा को देखने का आनंद ही अनूठा है। विशेषकर, यहां जब नर्मदा कोई 10-12 फीट नीचे खड्ड में गिरती है और फुहारों के साथ ऊपर उछलती है, मचलती है। गेंद की तरह टप्पा खाकर फब्वारों के साथ ऊपर कूदती है। घंटों निहारते रहो, फिर भी मन न भरे। जल प्रपात का ऐसा नजारा शायद ही कहीं और देखने को मिले।
यहां की संझा आरती में मुझे शामिल होने का मौका मिला है। भक्तगण नर्मदा मैया की आरती करते हैं। दीया जलाकर लोग आरती करते हैं और कुछ लोग नर्मदा में दीप प्रवाह करते हैं। नर्मदा की धार में दीप प्रवाह का यह नजारा अनोखा है, यह दृश्य बरसों बाद भी मेरी आंखों में तैर रहा है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है सतपुड़ा के जंगल और पहाड़ की खूबसूरती देखते ही बनती है। प्राकृतिक सुंदरता के साथ सांस्कृतिक विविधता भी यहां की पहचान हैं। पचमढ़ी, जिसे सतपुड़ा की रानी कहा जाता है, महादेव की नगरी है। यहां नर्मदा तो यहां की मैय्या है, लोग पूजा करते हैं और परिक्रमा करते हैं।
जंगल एक समुदाय की तरह है, यहां सिर्फ पेड़ ही नहीं, कई तरह की जड़ी-बूटियां, जंगली-जानवर, पक्षी, कीट पतंगे इत्यादि हैं। इसके साथ इसका एक इतिहास भी है, खेती-बाड़ी, खान-पान, रहन-सहन की विविध संस्कृति भी है। यह हमारी बहुमूल्य धरोहर है,जिसका संरक्षण करते रहना चाहिए।